nathi nonsense
हम , जो गुनहगार हैं।
मान लीजिए कि एक इंसान है
नादान सा, मासूम सा, एक बेगुनाह इंसान।
उसे एक कमरे में बंध कर दिया है
चार दीवारों के बीच कैद है वो।
घुटन हो रही है उसे
मगर जैसे तैसे ज़िंदा है ।
अब, कुछ लोग आते हैं और उस इंसान के आस पास खड़े हो जाते हैं
उन लोगों में तुम भी हो और उस इंसान के ठीक सामने खड़े हो।
आप सब लोगों के पास कुछ न कुछ हथियार है।
किसी के पास लाठी, किसी के पास हथौड़ा, किसी के पास कोड़ा।
सब लोग बारी बारी से उस नादान इंसान को मार रहे हो, बेरहमी से।
बार बार, लगातार, सब ऐसे मार रहे हो जैसे अपनी इंसानियत को अपने घर की अलमारी में छोड़ कर आये हो।
वो चीख रहा है, चिल्ला रहा है, गिड़गिड़ा रहा है, माफी मांग रहा है;
अफसोस कर रहा है वो अपने अस्तित्व का।
मगर आप सब लोग, बस मारते ही जा रहे हो उसे।
थोड़ी सी दया आ रही है तुम्हे उस पर,
मगर लाचार हो तुम, कुछ नही कर सकते सिवाय उसको मारने के।
तड़प रहा है, आखरी सांसे ले रहा है अपनी मगर कोई भी रुक नही रह,
बस मारे जा रहा है उसे ।
और फिर, मर जाता है वो इंसान, वहीं उस चार दीवारों के बीच।
और तुम सब के साथ मिलकर उसकी कब्र खोद कर उसे दफना देते हो, ठीक उसी जगह जहां वो बैठा था।
कल्पना कीजिये उस इंसान की हालत,
और सोचिये की क्या गुज़री होगी उस पर।
दया तो आपको तब भी आ रही थी, शायद अब भी आ रही होगी।
दुःख होता है? थोड़ा सा भी, दुःख होता है ?
तो बस, यही हाल करते हो तुम सपनों का–
अपने भी
और औरों के भी।
-Purvang J.