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Satires by Harishankar Parsai

संस्कृति

भूखा आदमी सड़क किनारे कराह रहा था। एक दयालु आदमी रोटी लेकर उसके पास पहुंचा और उसे दे ही रहा था कि एक दूसरे आदमी ने उसको खींच लिया। वह आदमी बड़ा रंगीन था।

पहले आदमी ने पूछा, ‘ क्यों भाई, भूखे को भोजन क्यों नहीं देते?’

रंगीन आदमी बोला ? ‘ ठहरो, तुम इस प्रकार उसका हित नहीं कर सकते। तुम केवल उसके तन की भूख समझ पाते हो, मैं उसकी आत्मा की भूख जानता हूं। देखते नहीं हो, मनुष्य-शरीर में पेट नीचे है और हृदय ऊपर। हृदय की अधिक महत्ता है। ‘

पहला आदमी बोला, ‘ लेकिन उसका हृदय पेट पर ही टिका हुआ है। अगर पेट में भोजन नहीं गया तो हृदय की टिक-टिक बंद नहीं ही जाएगी। ‘

रंगीन आदमी हंसा, फिर बोला, ‘ देखो, मैं बतलाता हूं कि उसकी भूख कैसे बुझेगी। ‘

यह कहकर वह उस भूखे के सामने बांसुरी बजाने लगा। दूसरे ने पूछा, ‘ यह तुम क्या कर रहे हो, इससे क्या होगा?’

रंगीन आदमी बोला, ‘ मैं उसे संस्कृति का राग सुना रहा हूं। तुम्हारी रोटी से तो एक दिन के लिए ही उसकी भूख भागेगी, संस्कृति’ के राग से उसकी जनम-जनम की भूख भागेगी। ‘

वह फिर बांसुरी बजाने लगा।

और तब वह भूखा उठा और बांसुरी झपटकर पास की नाली में फेंक दी।

दानी

बाढ़-पीड़ितों के लिए चंदा हो रहा था। कुछ जनसेवकों ने एक संगीत-समारोह का आयोजन किया, जिसमें धन एकत्र करने की योजना बनाई। वे पहुँचे एक बड़े सेठ साहब के पास। उनसे कहा, ‘देश पर इस समय संकट आया है। लाखों भाई-बहन बेघर-बार हैं, उनके लिए अन्‍न-वस्‍त्र जुटाने के लिए आपको एक बड़ी रकम देनी चाहिए। आप समारोह में आइएगा।’

वे बोले, ‘भगवान की इच्‍छा में कौन बाधा डाल सकता है। जब हरि की इच्‍छा ही है तो हम किसी की क्‍या सहायता कर सकते हैं? फिर भैया, रोज दो-चार तरह का चंदा तो हम देते हैं और व्‍यापार में कुछ दम नहीं हैं।’

एक जनसेवी ने कहा, ‘समारोह में खाद्य मंत्री भी आने वाले हैं और वे स्‍वयं धन एकत्र करेंगे।’

सेठजी के चेहरे पर चमक आई। जैसे भक्‍त के मुख पर भगवान का स्‍मरण करके आती है। वे बोले, ‘हाँ, बेचारे तकलीफ में तो हैं! क्‍या किया जाए? हमसे तो जहाँ तक हो सकता है, मदद करते ही हैं। आखिर हम भी तो देशवासी हैं। आप आए हो तो खाली थोड़े ही जाने दूँगा। एक हजार दे दूँगा। मंत्रीजी ही लेंगे न? वे ही अपील करेंगे न? उनके ही हाथ में देना होगा न?’

वे बोले, ‘जी हाँ, मंत्रीजी ही रकम लेंगे।’

सेठजी बोले, ‘बस-बस, तो ठीक है। मैं ठीक वक्‍त पर आ जाऊँगा।’

समारोह में सेठजी एक हजार रुपए लेकर पहुँचे, पर संयोगवश मंत्रीजी जरा पहले उठकर जरूरी काम से चले गए। वे अपील नहीं कर पाए, चंदा नहीं ले पाए।

संयोजकों ने अपील की। पैसा आने लगा। सेठजी के पास पहुँचे।

सेठजी बोले, ‘हमीं को बुद्धू बनाते हो! तुमने तो कहा था, मंत्री खुद लेंगे, और वे तो चल दिए।’

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